खिड़की के उस पार
मुझे दिन के उजाले से अधिक
रात के अँधेयारे रास आने लगे हैं
अब बादलों में ढका चाँद
चाँदनी की औपचारिक रोशनी से अधिक भाने लगा हैं
अपने बिस्तर में लेटा लेटा
खिड़की के उस पार
चाँद से आँख मिचोली खेलता हूँ
जो कभी
हँसता हैं मुझपे
कभी रोता हैं मेरे साथ
कभी उलाहने उपालाम्भो से
कर देता हैं सराबोर:
कुछ अपनी बदसूरती की दास्ताँ कहते कहते
कहीं किसी लैंप-पोस्ट या चारमीनार कि उचाईयों में छिप जाता हैं
जहाँ
क़ैद हैं मेरे सारे सपने
मेरे बीते दिनों के खट्टे-मीठे एहसास
और
वह मेरी असफ़लता बनकर मेरी आँखों में
आँख गराए रहता हैं.
बिस्तर में लेटे लेटे
मुझे कभी चाँद का
बदसूरत चेहरा नज़र आता हैं तो
कभी अपने गाँव की उग्रतारा
जो
ना जाने क्यूँ
मुझसे रूठी रहती हैं इनदिनों
घर के आँगन में
तुलसी चौरा पर
मेरी माँ नित्य दीये जलाती हैं
लेकिन माँ का दीप-दान
ग्रामदेवी तक पहूँच नहीं पाता हैं शायद
मैं सोच नहीं पाता
आखिर
क्या हैं मेरा वर्तमान
जो
अतीत कि लाठी पे टिक-टिक चलता रहता हैं
और
आमन्त्रित करता हैं
मेरे लंगड़े भविष्य को
जो
बादलों में डूबते उतराते चाँद कि
काली पट्टी में समां जाता हैं
निर्विकल्प
निह्सस्त्र
निराधार.!!!!
Wow….very deep!!